महाराज की कहानी कैसी है
कहानी की शुरुआत गुजरात के वडाल में वैष्णव परिवार में करसनदास के जन्म से होती है। करसन को दास होने पर हमेशा से आपत्ति रही है। बचपन से ही वह विभिन्न सवाल पूछता है। 10 साल की उम्र में मां के निधन के बाद उसकी जिंदगी का रुख बदल जाता है। उसके मामा उसे बांबे ले आते हैं, जो उस समय गुजराती व्यापारियों का कपास का केंद्र था।
बांबे में उस समय वैष्णवों की सात हवेलियां थीं। वहाँ अंग्रेजों की हुकूमत थी, लेकिन हवेली के मुख्य महाराज जदुनाथ महाराज उर्फ जेजे (जयदीप अहलावत) का प्रभाव सबसे अधिक था। इस हवेली के पास ही करसन (जुनैद) के मामा का घर था। युवा करसन अखबारों के लिए लेख लिखता था, जिनके पाठक समाज के प्रभावशाली लोग थे। करसन की सगाई किशोरी (शालिनी पांडे) से हो चुकी होती है, जिसकी महाराज में गहरी आस्था थी।
चरण सेवा के नाम पर वह भी महाराज को समर्पित हो जाती है। करसनदास सगाई तोड़ देता है। मासूम किशोरी को जब समझ आता है कि महाराज पाखंडी हैं, तो वह आत्महत्या कर लेती है। उसकी आत्महत्या से आहत करसन, पाखंडी महाराज की असलियत उजागर करने का संकल्प लेता है। वह उसके खिलाफ अखबार में लेख लिखना शुरू करता है। महाराज तिलमिला कर उसके खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर करता है। इस सफर में करसन का साथ विराज (शरवरी वाघ) भी देती है।
सप्रेम सलाम! उम्मीद है कि आप खैरियत से होंगे और खुदा से आपकी सलामती की दुआ करते हैं। यहाँ सब कुशलपूर्वक हैं। बचपन में, जब हम सातवीं कक्षा में थे और उन्नाव के फतेहपुर चौरासी में पढ़ते थे, तब मैंने अपने पड़ोसियों को खत लिखना सीखा था, जिसमें यही पहली पंक्ति शामिल थी। हमारे हरदोई जिले के बाबाजान और आपकी दादी जीनत की 90वीं सालगिरह पर ‘महाराज’ फिल्म देखने के तुरंत बाद पहली बार हम मिले और एक-दूसरे का हाथ थामे रहे। माशाअल्लाह, आप कितने जवान हो गए हैं! उस दिन का जश्न कुछ यूं खलल हो गया कि अगले दिन रिलीज होने वाली फिल्म अब जाकर रिलीज हो पाई। खैर, देर आयद दुरुस्त आयद..!
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जुनैद, आपने अपनी पहली ही फिल्म में अभिनय के नए मापदंड स्थापित कर दिए हैं। एक पत्रकार का किरदार निभाना, वह भी ईमानदार पत्रकार का, आसान नहीं है। जब मूर्खता को देशभक्ति मान लिया जाए, वैसे दौर में बुद्धिमान होना खतरे से खाली नहीं होता। लेकिन, आपने जिस साहस के साथ फिल्मी पर्दे पर पहली बार उतरने के लिए यह किरदार चुना, उसके लिए बार-बार प्रशंसा करनी पड़ती है। इसमें आपके पिता आमिर खान की भी सहमति अवश्य रही होगी। और, उन्हें इस बात पर गर्व भी हुआ होगा कि उनका बेटा अपनी पहली ही फिल्म में गुजरात की धरती से निकले एक समाजसुधारक का किरदार निभा रहा है, जिसने खुद से पहले परिवार, परिवार से पहले समाज और समाज से पहले अपने वतन की रक्षा को ही अपना धर्म माना। वहां से निकले सभी समाज सुधारक यही करते आए हैं।
फिल्म ‘महाराज’ की कहानी दर्शाती है कि यह घटना गुजरात के मोहनदास करमचंद गांधी के जन्म से सात साल पहले की है। उस समय साबरमती के आसपास शायद कोई ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीड़ पराई जाणी रे’ नहीं गाता था, लेकिन आज सभी वैष्णव इस भजन का अर्थ समझते हैं। 1862 में नागपुर से कच्छ की खाड़ी तक सभी एक ही क्षेत्र का हिस्सा थे, जो बाद में मराठी और गुजराती भाषाओं के आधार पर महाराष्ट्र और गुजरात में विभाजित हो गए। तब बंबई में सुप्रीम कोर्ट हुआ करता था, जहां आपके किरदार करसनदास मुलजी पर मानहानि का मुकदमा चला। यह केस अनोखा था क्योंकि मुकदमा करने वाला हार गया और जिस पर मुकदमा हुआ, उसे न केवल बरी किया गया बल्कि मुकदमे के खर्च भी वापस दिलाए गए।
‘महाराज’ जैसे धर्मगुरुओं के अनुयायियों को शायद यही बात अखर गई होगी। मेरी बेटी ने कानून की पढ़ाई की है और कानून पढ़ाया भी है। वह अभी विदेश में है, लेकिन उसके सहपाठियों से सुना है कि कानून की कक्षाओं में ‘महाराज लिबेल केस’ कभी पढ़ाया जाता था। अभी हाल ही के एक मामले में भी कहा गया कि मामला धर्म से जुड़ा है, इसलिए संवेदनशील है। जबकि होना यह चाहिए था कि ऐसे संवेदनशील मामलों को धर्म की चर्चाओं में बार-बार हर बच्चे को सुनाया जाना चाहिए ताकि वे बड़े होकर ऐसे धर्मगुरुओं से दूर रहें जो अपने स्वार्थ के लिए धर्म की व्याख्या करते हैं। भला हो जेम्स बॉन्ड बने डेनियल क्रेग का, जिन्होंने आज के बच्चों को अपनी फिल्म में बताया, ‘हिस्ट्री इज नॉट काइंड टू मेन हू प्ले गॉड!’ और यही फिल्म में जयदीप अहलावत के किरदार ‘महाराज’ के साथ भी होता है।”
जयदीप अहलावत ने हिंदी सिनेमा में इरफान खान की कमी को पूरा किया है, जैसा मैंने फिल्म ‘थ्री ऑफ अस’ के समीक्षा में लिखा था। मगर, ‘महाराज’ में वे इससे भी आगे बढ़ गए हैं। फिल्म में शालिनी पांडे और शरवरी वाघ जैसी दो दमदार अभिनेत्रियां भी हैं, लेकिन जयदीप अहलावत का किरदार इतना प्रभावशाली है कि अन्य किरदारों को समझने का अवसर ही नहीं मिलता। यह बाबा हर मौके पर अपनी मर्दानगी दिखाने को बेताब रहता है और अपनी स्त्रैण लीला से बेटियों को प्रिय बना लेता है। भगवान कृष्ण की धरती पर उनकी छवि को अपनाने वाला एक बाबा ऐसा कर सकता है, यह सुनकर हैरानी होती है कि किसी ने पहले इसके कानों में पिघला सीसा क्यों नहीं डाल दिया। लेकिन भक्त क्या करें? अगर ‘महाराज लिबेल केस’ से कुछ सीखा होता तो पी सी सोलंकी को जोधपुर में आसाराम के खिलाफ ऐसा ही मामला लड़ने की जरूरत नहीं पड़ती।
जुनैद, जब तक इस देश में पी सी सोलंकी और करसनदास मुलजी जैसे ईमानदार समाजसेवी मौजूद हैं, यह देश ईद और दिवाली साथ मनाता रहेगा। सोलंकी ने भी अपने केस में बड़े-बड़े वकीलों को मात दी और आसाराम को बदनाम नहीं होने दिया। चाहे समस्या कितनी भी कठिन हो, समाज को सही दिशा दिखाने के लिए ‘सिर्फ एक ही बंदा काफी है!’ और, ऐसा एक बंदा हर युग में होता रहेगा। यशराज फिल्म्स ऐसी प्रेरणादायक फिल्में आगे भी बनाता रहे। आमिर खान जैसे पिता अपने बेटों को अपने करियर से ज्यादा अपनी आत्मा की बात सुनने की स्वतंत्रता देते रहें। खैर, अपना ख्याल रखना जुनैद, क्योंकि आप आमिर खान के बेटे हैं..!! खुदा हाफिज..